Politics: हाशिए से सत्ता तक, बिहार में महिलाओं की राजनीति



बिहार में महिलाओं की राजनीति: बिहार की राजनीति में महिलाओं का प्रतिनिधित्व हमेशा सीमित और चुनिंदा रहा है। यहां तक कि जब महिलाएं विधानसभा तक पहुंचती हैं, तब भी अक्सर…

बिहार में महिलाओं की राजनीति: बिहार की राजनीति में महिलाओं का प्रतिनिधित्व हमेशा सीमित और चुनिंदा रहा है। यहां तक कि जब महिलाएं विधानसभा तक पहुंचती हैं, तब भी अक्सर वे अपने पिता, भाई या पति की छाया में ही सक्रिय रहती हैं। पुरुषप्रधान समाज और पितृसत्तात्मक संरचना ने महिलाओं को सार्वजनिक जीवन से अलग रखा है।

ऊंची जातियों और पिछड़ी उच्च जातियों में पितृसत्ता का प्रभाव सबसे अधिक देखा गया है, जहां महिलाओं की भूमिका घर और पारिवारिक कामकाज तक सीमित रही है। वहीं, निम्न पिछड़ी जातियों और दलित महिलाओं को सार्वजनिक जीवन में प्रवेश का मौका मिला, लेकिन आर्थिक असुरक्षा और संसाधनों की कमी के कारण उनकी भागीदारी भी सीमित रही। पंचायत चुनावों में महिला आरक्षण लागू होने के बाद कई महिला प्रधान उभर कर पंचायत स्तर की राजनीति में सामने आईं। यह दर्शाता है कि जब अवसर और आवश्यकता दोनों मिलते हैं, तो महिलाएं भी पुरुषों की तरह राजनीति में सक्रिय भूमिका निभा सकती हैं।

बिहार विधानसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व: एक संक्षिप्त इतिहास

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देश की आजादी के बाद, 1952 में हुए पहले बिहार विधानसभा चुनाव ने महिलाओं के राजनीतिक सफर की शुरुआत की। उस चुनाव में 46 महिला उम्मीदवारों ने मैदान में उतरकर अपनी पहचान बनाई और 25 महिलाएँ जीतकर विधानसभा तक पहुँच गईं। यह संख्या उस दौर के लिए काफी बड़ी थी और यह दर्शाती है कि महिलाओं ने अपने दम पर राजनीति में कदम रखा। हालांकि, इसके बाद का सफर उतार-चढ़ाव से भरा रहा।

1957 के चुनाव में महिलाओं की सक्रियता और सफलता और भी प्रभावशाली रही। 46 महिला उम्मीदवारों में से 30 महिलाएँ विधायक बनीं। 1962 में भी 42 महिला उम्मीदवारों में से 25 ने जीत हासिल की, लेकिन 1967 का चुनाव थोड़ा कठिन साबित हुआ, जब 29 महिला उम्मीदवारों में से केवल 6 महिलाओं ने जीत दर्ज की। 1969 के चुनाव में संख्या और कम हुई और 20 उम्मीदवारों में केवल 4 महिलाएँ विजयी रहीं।

1972 का चुनाव महिला नेताओं के लिए एक झटका साबित हुआ। उस वर्ष 45 महिला उम्मीदवार चुनाव मैदान में थीं, लेकिन कोई भी महिला विधायक नहीं बन पाई। यह दशक महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी में अस्थिरता का प्रतीक था। 1977 के चुनाव में महिला उम्मीदवारों की संख्या बढ़कर 96 हो गई, उनमें से केवल 13 ने जीत दर्ज की। इस दौर में पुरुष-प्रधान राजनीति और सामाजिक संरचनाओं ने महिलाओं के रास्ते में नई बाधाएँ खड़ी कर दी थीं।

1980 के दशक में महिला उम्मीदवारों की संख्या में निरंतर वृद्धि देखी गई। 1980 के चुनाव में 77 महिलाएं मैदान में थीं, लेकिन केवल 11 ने जीत हासिल की। 1985 के चुनाव में यह संख्या 103 तक बढ़ गई, लेकिन जीतने वाली महिलाएँ केवल 15 ही रहीं। 1990 के दशक का चुनाव राजनीतिक और सामाजिक उथल-पुथल के दौर के रूप में जाना गया। इस साल 147 महिला उम्मीदवार विधानसभा चुनाव में उतरीं, लेकिन जीत पाई केवल 10 महिलाएं

2000 के चुनाव में 189 महिला उम्मीदवार थीं, लेकिन विजयी महिलाओं की संख्या 19 तक सीमित रही। 2005 में विधानसभा चुनाव दो बार हुआ। फरवरी के चुनाव में 138 महिला उम्मीदवारों में से 25 विजयी हुईं, जबकि अक्टूबर में 234 उम्मीदवारों में से मात्र 3 महिलाओं ने जीत हासिल की। 2010 के चुनाव में 307 महिला उम्मीदवारों में से 34 महिलाएं विधायक बनीं।

आंकड़ों की कहानी दिखाती है कि महिलाओं की भागीदारी लगातार बढ़ी है, लेकिन जीत की दर में उतार-चढ़ाव देखा गया है। यह सब दर्शाता है कि बिहार में महिलाओं का राजनीतिक सफर संघर्षों से भरा रहा है, जिसमें समाज, जाति और पितृसत्ता की बाधाएं हमेशा सामने रही हैं।

मंत्रिपरिषद में महिलाओं की उपस्थिति: नाम मात्र

बिहार की राजनीति में पहली महिला कैबिनेट मंत्री का दर्जा पाने वाली भोजपुर जिले की महिला विधायक सुमित्रा देवी का नाम आता है, जिन्होंने पहली बार कैबिनेट मंत्री बन नया रिकॉर्ड बनाया था। सुमित्रा देवी ने रिकॉर्ड जगदीशपुर, पीरो और आरा विधानसभा क्षेत्र से चुनाव जीतकर बनाया था।

बिहार सरकार के राज्य मंत्रिपरिषद में महिलाओं की उपस्थिति नाममात्र रही है। 1990 में लालू यादव के 72 सदस्यीय मंत्रिपरिषद में केवल 2 महिलाएँ थीं। 1995 में राबड़ी देवी के मंत्रिपरिषद में 3 महिलाएँ शामिल हुईं, और 2000 में फिर से 2 महिलाएँ ही शामिल हुईं। यह साफ करता है कि महिलाओं को उच्च राजनीतिक पदों पर न्यूनतम ही प्रतिनिधित्व मिला।

रेणु देवी का उपमुख्यमंत्री बनना महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी के लिहाज से अहम कदम था, लेकिन मुख्यधारा की राजनीति में उनकी भूमिका उम्मीदों के अनुरूप नहीं रही। बिहार की आधी आबादी आज जिस सशक्त महिला नेतृत्व की तलाश में है, वह छवि रेणु देवी गढ़ नहीं सकीं।

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बिहार की पहली महिला विधायक सुमित्रा देवी और बिहार की पहली महिला उप-मुख्यमंत्री रेणु देवी

आरक्षण: स्थानीय राजनीति में सफलता का सूत्र

स्थानीय राजनीति में महिलाओं के आरक्षण ने स्थिति बदल दी। 2001 में पंचायत चुनावों में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण और 2006 में 50 प्रतिशत आरक्षण दिया गया। इसने दलित और पिछड़ी जातियों की महिलाओं को सक्रिय भूमिका निभाने का अवसर दिया।

हालांकि, इसे केवल ‘मुखौटे का आरक्षण’ मानते हैं, पर वास्तविकता यह है कि यह जमीनी स्तर पर पितृसत्ता की जकड़न को कमजोर करने में सहायक रहा। यही कारण है कि संसद और विधानसभाओं में भी महिलाओं के आरक्षण की आवश्यकता महसूस की जा रही है।

शिक्षा और आर्थिक अधिकार: राजनीति का आधार

राजनीतिक प्रतिनिधित्व से पहले, महिलाओं के अधिकारों का सवाल शिक्षा और आर्थिक संसाधनों तक भी फैला है। बिहार में अधिकांश महिलाओं को शिक्षा केवल घरेलू दक्षता तक सीमित दी जाती रही है। दलित, मुस्लिम और निम्न पिछड़ी जातियों की महिलाओं की स्थिति इससे भी अधिक खराब रही है।

संपत्ति और आर्थिक संसाधनों पर पुरुषों का नियंत्रण महिलाओं को स्वतंत्र निर्णय लेने से रोकता है। ऊंची जातियों की महिलाओं के पास संपत्ति तो है, लेकिन बेटियों को उसके अधिकार से वंचित रखा जाता है। दलित और निम्न पिछड़ी जातियों की महिलाएं आर्थिक तंगी और जीविका के संकट का सामना करती हैं।

इसलिए महिलाओं के राजनीतिक अधिकार शिक्षा और आर्थिक अधिकारों से अलग नहीं हो सकते। प्रत्येक समूह की महिलाओं के लिए अलग रणनीति और नीति की आवश्यकता है।

बिहार विधानसभा में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी: एक नई चेतना

हालिया विधानसभा चुनावों में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी ने बिहार की पुरुषप्रधान राजनीति को गहरी चुनौती दी है। यह सिर्फ प्रतिनिधित्व की बढ़ती संख्या नहीं, बल्कि महिलाओं की उभरती राजनीतिक चेतना का संकेत है।

महिलाओं के अपने मुद्दे हैं—बेहतर जीवन, शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा—जो पारंपरिक ‘पुरुष-प्रधान एजेंडे’ से अलग हैं। राजनीतिक दल भी अब समझने लगे हैं कि जीत-हार में महिलाओं की भूमिका निर्णायक है। इसका असर विजन डॉक्युमेंट और नीतिगत योजनाओं में झलकने लगा है।

नीतीश सरकार की ‘मुख्यमंत्री साइकिल योजना’ ने लाखों लड़कियों को स्कूल तक पहुंचने की आजादी दी है। साइकिल उनके लिए सिर्फ परिवहन का साधन नहीं, बल्कि आत्मनिर्भरता और स्वतंत्रता का प्रतीक बन गई। स्कूलों में शौचालय निर्माण, यूनिफॉर्म, किताबें और साइकिल जैसी योजनाओं से लड़कियों के ड्रॉपआउट में कमी आई है।

अगला कदम क्वालिटी एजुकेशन की दिशा में होना चाहिए—सरकारी स्कूलों की स्थिति सुधारना, योग्य शिक्षकों की पारदर्शी भर्ती और उच्च शिक्षा की बेहतर सुविधाएँ देना। आज भी बिहार के बहुत से छात्रों, खासकर लड़कियों को, उच्च शिक्षा के लिए राज्य से बाहर जाना पड़ता है, जो कई बार उनकी पढ़ाई अधूरी छोड़ने की वजह बनता है।

शिक्षा के बाद अगली बड़ी चुनौती है—रोजगार के अवसर। जब तक बिहार में पर्याप्त नौकरियाँ नहीं बनेंगी, तब तक पलायन जारी रहेगा। पलायन का यह दबाव विशेष रूप से लड़कियों पर पड़ता है, जिनके परिवार अक्सर उन्हें बाहर नौकरी करने भेजने में झिझकते हैं।

यदि राज्य के भीतर ही रोजगार के अवसर सृजित हों, तो न सिर्फ महिलाएं आर्थिक रूप से सशक्त होंगी, बल्कि राज्य का सामाजिक-आर्थिक विकास भी तेज होगा।

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आधी आबादी की आकांक्षाएं

बिहार की महिलाएँ केवल महंगाई, बिजली या घरेलू सुविधाओं तक सीमित मांग नहीं रखतीं। वह एक बराबरी पर आधारित समाज चाहती हैं—जहां शिक्षा, रोजगार, सुरक्षा और राजनीतिक निर्णयों में उनकी समान भागीदारी हो। पंचायतों में 50% आरक्षण ने इस दिशा में आशा जगाई है, लेकिन अब यह प्रतिनिधित्व विधानसभा और नीतिगत निर्णयों में भी दिखना चाहिए।

बिहार का समाज सदियों से पितृसत्तात्मक, सामंतवादी और जातिवादी सोच में जकड़ा रहा है। इस मानसिकता को बदलने के लिए नीतिगत और सामाजिक दोनों स्तरों पर ठोस कदम जरूरी हैं। यदि सरकार इन जकड़ों को कमजोर कर सके और सामाजिक न्याय को अवधारणा से निकालकर जमीन पर उतार सके, तो एक नया बिहार बन सकता है—जहां जाति, धर्म और लिंग की सीमाएं विकास के रास्ते में बाधा न बने।

योजनाएं और आधी आबादी: सशक्तिकरण की नई दिशा या सीमित लाभ?

बिहार सरकार ने हाल के वर्षों में महिलाओं को केंद्र में रखकर कई योजनाएं शुरू की हैं। शराबबंदी कानून, मुख्यमंत्री महिला सम्मान योजना और मुख्यमंत्री मेधा छात्रवृत्ति योजना जैसे कार्यक्रमों को महिलाओं की सुरक्षा, सम्मान और शिक्षा से जोड़कर देखा जा रहा है। इन योजनाओं ने निश्चित रूप से महिलाओं के जीवन में कुछ ठोस बदलाव लाए हैं—लेकिन सवाल यह है कि क्या ये बदलाव आर्थिक सशक्तिकरण और सामाजिक आत्मसम्मान को गहराई से परिभाषित कर पा रहे हैं?

इन सभी योजनाओं ने निश्चित रूप से आधी आबादी के बड़े समूह को मुख्यधारा में लाने में योगदान दिया है, लेकिन यह योगदान आंशिक है। सशक्तिकरण का असली अर्थ केवल आर्थिक सहयोग या सुविधा नहीं, बल्कि सामाजिक आत्मसम्मान, निर्णय लेने की स्वतंत्रता और अवसरों में बराबरी से है। जब तक इन योजनाओं को शिक्षा, रोजगार और सामाजिक ढांचे में बदलाव से नहीं जोड़ा जाएगा, तब तक आधी आबादी का सशक्तिकरण अधूरा रहेगा। बिहार को यदि वाकई एक नया चेहरा देना है, तो योजनाओं को राहत की जगह परिवर्तन के औजार में बदलना होगा—जहां महिलाएं नीति की लाभार्थी नहीं, बल्कि उसकी निर्माता बनें।

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